Wednesday, October 29, 2008

क्या भारत गाँधी को भूल गया है?

बीबीसी के इस प्रश्न के जवाब में आए उत्तरों से नए दरवाजों से रौशनी आती लगती है...लेकिन अगर झरोखे ही सही रोशनी कि किरण दिख जाए तो रास्ता ढ़ूढ़ने में मदा जरूर मिलती है....ऐसे ही रास्ते की तलाश में बीबीसी को मिले उत्तों को साभार प्रकाशित किया जा रहा है....पढ़े और गुने ........
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महात्मा गाँधी ने राजनीतिक जीवन में सदाचार, सच्चाई और ईमानदारी पर ज़ोर दिया था. उन्होंने पिछड़े और ग़रीब तबक़े के विकास को सच्चा विकास कहा, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जातिवाद और हिंसा से दूर रहने का सबक़ सिखाया.
भारत में आज राजनीतिक जीवन में ईमानदारी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती. विकास हो रहा है लेकिन ग़रीबों और पिछड़ों का नहीं बल्कि महानगरों में रहने वाले मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लोगों का. हिंसा, भ्रष्टाचार और जातिवाद भारत की बड़ी समस्याएँ हैं.

क्या महात्मा गाँधी ने इसी तरह के भारत का सपना देखा था? क्या महात्मा गाँधी के आदर्शों का पालन आज के युग में संभव है? क्या भारत की समस्याओं का हल गाँधीवाद में छिपा है? भारत में गाँधीवादी मूल्यों के पतन के लिए आप किसे ज़िम्मेदार मानते हैं?

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इन्होंने भी पत्र लिखे हैं:
दीपक तिवारी, इंदौर, भास्कर डोभाल, वियेना, ऑस्ट्रिया, तारक पटेल, ऑस्ट्रेलिया, गांडाभाई पटेल, न्यूज़ीलैंड, कन्हैया राजेश, नई दिल्ली, आशुतोष कुमार, नई दिल्ली, जावेद ख़ान, कुवैत

भारत गाँधी जी को कभी नहीं भुला सकता लेकिन हमें गाँधी जी को फूल मालाएँ चढ़ाने और नारे लगाने से आगे भी याद रखना होगा. हमें गाँधीवाद आज के दौर में ढालना होगा क्योंकि साठ साल पहले हालात बिल्कुल अलग थे. पंकज मुकाती, भोपाल, मध्य प्रदेश

साठ साल पहले गाँधी जी ने जिस भारत की कल्पना की थी वो भारत आज नहीं है. हमारी खोखली राजनीति ने हमारे देश को दीमक की तरह चाट लिया है. गाँधी जी ने जो लड़ाई लड़कर देश को आज़ादी दिलाई, उनसे आज के नेताओं को सबक लेना चाहिए. फ़िरोज़ ख़ान, कुवैत

गाँधी जी ने हथियारों के बिना ही देश को जिस तरह से आज़ादी दिलाई उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. हिम्मत सिंह भाटी, जोधपुर, राजस्थान

गाँधी जी जैसे महान नेता को कभी नहीं भुलाया जा सकता. पूरी दुनिया ही सालों साल तक गाँधी जी के नाम को नहीं भुला सकती. जावेद ख़ान, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

आज के संदर्भ में गाँधी जी के धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक विचारों की विस्तार पूर्वक समीक्षा होनी चाहिए. अक्षत अग्रवाल, कुवैत

गाँधी जी ने एक वर्गहीन भारतीय समाज का सपना देखा था. उनके सपनों का भारत ऐसा था जहाँ कोई ग़रीब या अमीर नहीं होगा, सभी केवल भारतीय होंगे. आज के दौर में गाँधी का ये सपना तो निश्चय ही पूरा नहीं हुआ है. सुभाशीष मलिक, मुंबई

अगर देश से चोरों, रिश्वतखोरी और ओछी राजनीति अगर देश से हट जाए तो शायद हम गाँधी के सपनों का भारत बना सकते हैं.


अज़ीम मिर्ज़ा, दुबई

गाँधी एक महान हस्ती का नाम है. देश और दुनिया को उनके योगदान पर हमें गर्व है. हमने बहुत विकास किया है, बहुत ऊँचाई तय की है लेकिन वो भारत नहीं बना सके जो गाँधी जी का सपना था. सत्य, अहिंसा और बहुत पिछड़े वर्ग के लोगों को मान और सम्मान, यही था गाँधी जी का सपना. अगर देश से चोरों, रिश्वतखोरी और ओछी राजनीति अगर देश से हट जाए तो शायद हम गाँधी के सपनों का भारत बना सकते हैं. अज़ीम मिर्जा, दुबई, संयुक्त अरब अमीरात

असलियत यही है कि समय बहुत बदल गया है. आज के दौर में मध्यमवर्गीय व्यक्ति गाँधी जी के सिद्धांतों पर चल कर कैसे जीवित रह सकता है जबकि चारों तरफ़ गला काट प्रतिस्पर्धा, भ्रष्टाचार और उच्च तकनीक वाले अपराधों का बोलबाला है. लेकिन फिर भी हमें गाँधी जी के सिद्धांतों पर चलने की कोशिश करनी चाहिए. अनाम

मैं इस बात से सहमत हूँ कि देश ने महात्मा गाँधी को भुला दिया है. लोग गाँधी जी के साथ जुड़ी कुछ नकारात्मक बातों को बढ़ाचढ़ाकर पेश करते हैं. मुझे गाँधी जी के बारे में कक्कड़ की पुस्तक पर अफ़सोस हुआ है. आनंद पाँडे, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

महात्मा गाँधी सिर्फ़ एक नाम नहीं है, अगर कोई उनके दर्शन को पढ़े तो अथाह सागर नज़र आएगा. लेकिन भारत में स्कूल स्तर पर भी गाँधी जी के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं दी जाती. अमित उपाध्याय, टोरंटो, कनाडा

महात्मा गाँधी ने दुनिया को जीवन दर्शन का सिद्धांत दिया. भारत में इसी मुद्दे पर कशमकश चल रही है कि गाँधी जी के सिद्धांत पर अमल किया जाए या फिर उसमें कुछ फेरबदल की जाए. मेरा ख़याल है कि हमारे राष्ट्रपति कुछ मामलों में गाँधी जी की तरह हैं. हमें गाँधी जी के दर्शन को आज के हालात के अनुसार समझना और लागू करना होगा. आशुतोष, विस्कोन्सिन, अमरीका

भारत ने गाँधी जी को कभी नहीं भुलाया है लेकिन हमें गाँधी जी को आज के आधुनिक युग में भी याद रखना होगा, और ऐसा सिर्फ़ नारेबाज़ी या फिर उनकी मूर्तियों पर मालाएँ चढ़ाने भर के लिए ही नहीं होना चाहिए. हमें गाँधीवाद को आधुकनिकता के साथ जोड़कर स्वीकार करना होगा. पंकज पुकाती, भोपाल

गाँधी जी ने साठ साल पहले जिस भारत की कल्पना की थी आज का भारत उससे कही आगे है. वक़्त बदला है, बहुत सी चीज़ों के मायने भी बदले हैं. ऐसे में भारत के साथ ग़लत क्या है? आज के दौर में बेईमान कौन नहीं है. कौन बिल्कुल सच्चा है. मैं क़रीब 35 साल तक भारत में रहा हूँ और अब दुनिया घूम रहा हूँ. मेरे भारत में जो है, वह दुनिया में नहीं है. योगेश, ब्रेम्पटन, कनाडा

शांति के देवता बापू जी के सिद्धांत सुनहरे शब्दों में तो लिखे गए लेकिन उन पर क्या कोई अनुकरण करता है. बापू जी की मोम की प्रतिमा के साथ उनके सुनहरे सिद्धांत भी लंदन के संग्रहालय में लिखे जाने चाहिए न कि सिर्फ़ ऐश्वर्या रॉय की प्रतिमा वहाँ लगे. गुडो राजन, शिकागो, अमरीका

भारत कभी नहीं भूल सकेगा कि वहाँ कोई ऐसा भी व्यक्तित्व पैदा हुआ जो अपने उसूलों पर सारी दुनिया की मिसाल बन गया. सत्य और अहिंसा के पुजारी बापू तो नहीं रहे लेकिन उनके आदर्श आज भी क़ायम हैं. लेकिन मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि नैतिकता की दुहाई ही सिर्फ़ आज गाँधी जी के आदर्शों की याद दिला रही है. वो नैतिकता और आदर्श आज सिर्फ़ एक कहानी बन कर रह गए हैं. जनार्दन त्रिपाठी, छत्तीसगढ़

आज कितने लोग जानते हैं कि गाँधी जी ने स्वतंत्र भारत के लिए क्या सपना देखा था. उनका सपना साकार करने के लिए ज़रूरी है कि पहले उनके सपने को समझा जाए. आज ज़्यादातर भारतीय अपना ही स्वार्थ साधने में लगे हैं. अब देश को गाँधी जैसे नेता की ज़रूरत है. मुंजाल ध्रुव, कनाडा

ऐसा नहीं है कि लोग गाँधी जी को भूल गए हैं. सिर्फ़ ये हुआ है लोग उन्हें ठीक से जानते नहीं. मैंने गाँधी जी के बारे में 27 वर्ष की उम्र में पढ़ना शुरू किया. राष्ट्रपिता के बारे में इतनी देर से पढ़ना शर्म की बात है. जो भी, मेरी नज़र में गाँधी जी असाधारण इच्छाशक्ति वाले साधारण इंसान थे. अमित लांबा, अमरीका

भारत में जाति, धर्म, ऊँच-नीच सब छोड़ कर प्रतिभावान लोगों को मौक़ा दिया जाए तब ही देश गाँधी के सपनों का भारत बन पाएगा. निगार, कनाडा

भारत को अच्छे राजनेताओं की ज़रूरत है. उन्हें ग़रीबों के बारे में सोचना होगा. गाँधी जी जो चाहते थे वो नहीं हुआ है. विन्नी, स्पेन

भूले नहीं
ऐसा नहीं है कि लोग गाँधी जी को भूल गए हैं. सिर्फ़ ये हुआ है लोग उन्हें ठीक से जानते नहीं. मैंने गाँधी जी के बारे में 27 वर्ष की उम्र में पढ़ना शुरू किया. राष्ट्रपिता के बारे में इतनी देर से पढ़ना शर्म की बात है. जो भी, मेरी नज़र में गाँधी जी असाधारण इच्छाशक्ति वाले साधारण इंसान थे.


अमित लांबा

विदेशी लोग भी गाँधी का नाम इज़्ज़त और श्रद्धा से लेते हैं. ये देख कर सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है. रतन अग्रवाल, इंग्लैंड

भारत में गाँधी के विचार अप्रासंगिक होते जा रहे हैं. शीर्ष पर बैठे नेताओं की ज़ुबान तक ही गाँधीवाद सीमित रह गया है. राजेश रंजन, पंजाब

जिस पीढ़ी ने गाँधी जी की सक्रियता को नहीं देखा, उसे कभी समझ नहीं आएगा कि कैसे उन्होंने भारत की जनता को आंदोलित किया. आलोचक जो भी कहें, इसमें कोई शक नहीं कि गाँधी जी एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे जिन्होंने भारत को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से बदलने का प्रयास किया.प्रमोद द्विवेदी, अमरीका

गाँधीजी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन दुख की बात है कि उनका सपना नहीं पूरा हो रहा. बृजेश, गुजरात

गाँधीजी के विषय में पढ़कर मुझे उनमें ऐसा कुछ भी नहीं लगा कि उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा दिया जाए. कोई लाल बहादुर शास्त्री, वल्लभभाई पटेल और सुभाष चंद्र बोस के भारत का जिक्र क्यों नहीं करता. अनिल प्रकाश पांडे, शारजाह

भारत सहित कई देशों का इतिहास गवाह है कि हमेशा उच्च वर्ग ही ग़रीब और निर्धन पर शासन करता रहा है. जब तक स्थिति नहीं बदलेगी सुधार संभव नहीं. यही कड़वी सच्चाई है. सईद बट, लाहौर, पाकिस्तान

भारत को महात्मा गाँधी का भारत बनने में अभी काफ़ी समय लगेगा. यहाँ तो राजनेता भ्रष्टाचारी हैं, नौकरशाही बदनाम है, लोग जाति और धर्म के नाम पर बँटे हैं. सूची काफ़ी लंबी है. संदीप राज, ब्रिटेन

गाँधीजी के सपनों को साकार न होने देने में काँग्रेस बहुत ज़िम्मेदार है. देश की आज़ादी के बाद काँग्रेस ने 50 वर्षों तक राज किया लेकिन गाँधीजी के बताए गए आदर्शों को पूरी तरह से भुला दिया गया. रामनाथ मुतकुले, इंदौर

मुझे अपने देश पर गर्व है. महात्मा गाँधी दुनिया के सबसे महान व्यक्ति थे. आकाश मेहरा, लंदन

भारत के राष्ट्रपिता को हमारा प्रणाम. अब ये वो भारत नहीं रहा जिसे सारा संसार सोने की चिड़िया कहता था. सोने की चिड़िया को बचाने के लिए बहुत बलिदान हुए. शांति के देवता बापूजी ने बिना लड़ाई लड़े भारत को आज़ाद कराया. आज ऐसा नेता कहाँ. शीला मदान, शिकागो

ये सत्य है कि आजकल ईमानदारी, सदाचार और ऐसी चीज़ें कम दिखाई देती हैं और भ्रष्टाचार फैला हुआ है लेकिन आज भी बहुत सारे संगठन समाज परिवर्तन में लगे हैं. मैं यह समझता हूँ कि भारत में राजनीतिक इच्छाशक्ति और क़ानून की शक्ति ज़रूरी है. रेवती रमन, न्यूज़ीलैंड

नई क्रांति की ज़रूरत
राजनीति और लोगों का चारित्रिक पतन देश की इस दशा के लिए ज़िम्मेदार है. हमें सबसे पहले ख़ुद को फिर समाज और फिर राजनीति में बदलाव के लिए नई क्रांति लानी होगी.


बजरंग

मैं भारतीय होने पर गर्व महसूस करता हूँ लेकिन उससे भी ज़्यादा गर्व की बात ये है कि मैं महात्मा गाँधी की ज़मीन पर पैदा हुआ. चिराग पटेल, केलीफ़ोर्निया, अमरीका

राजनीति और लोगों का चारित्रिक पतन देश की इस दशा के लिए ज़िम्मेदार है. हमें सबसे पहले ख़ुद को फिर समाज और फिर राजनीति में बदलाव के लिए नई क्रांति लानी होगी. बजरंग, बूँदी, राजस्थान

गाँधी जी के सपनों का भारत तो क़तई नहीं है. चारों ओर हिंसा, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक दंगे, ये सब भ्रष्ट नेता अपनी कुर्सी बचाने की ख़ातिर कराते हैं और देश को अंधकारमय भविष्य की गर्त में धकेल रहे हैं. नासिर हुसैन कुवैत

महात्मा गाँधी ने जिस भारत की कल्पना की थी, आज का भारत उन कल्पनाओं से बिल्कुल अलग है. महात्मा गाँधी ने जिन आदर्शों के सहारे भारत के विकास की नींव डाली थी, आज के नेता उन्हें ताक पर रखकर सिर्फ़ निजी निर्माण में लगे हुए हैं. सेवा और सदाचार की भावना उनके ज़हन से बिल्कुल निकल चुकी है. भौतिक सुख की तृष्णा में जीने वाले ये नेता भारत का विकास कदापि नहीं कर सकते. भारत में गाँधीवादी मूल्यों के पतन के लिए सबसे ज़्यादा जवाबदेह आज के नेता ही हैं. डॉक्टर नूतन स्मृति, देहरादून

आज का भारत गाँधी जी के सपनों का देश नहीं है. यह सही है कि गाँधी जी के विचार और सिद्धांत हमेशा के लिए मूल्यवान और प्रासंगिक हैं और भारत की तमाम समस्याओं का समाधान उनके सिद्धांतों में मिल सकता है. पियूष, वडोदरा, गुजरात

गाँधी की प्रासंगिकता पर बहस शुरू

बीबीसी संवाददाता,राजीव खन्ना की लेखनी से साभार गांधी चिंतन से जुड़े लोगों के लिए...
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मेरा जीवन ही मेरा संदेश है: महात्मा गाँधी

दांडी यात्रा के 80 वर्ष बाद दोबारा आयोजन ने एक बार फिर महात्मा गाँधी की प्रासंगिकता पर बहस छेड़ दी है.
साबरमती के गाँधी आश्रम में आज भी लोग बड़ी संख्या में आते हैं.

वहाँ आने वाले जितने भी लोगों से यह पूछा गया कि आज के दौर में गाँधी प्रासंगिक हैं, तो जवाब यही मिला की गाँधी की बहुत ज़रूरत हैं.

गाँधी आश्रम में रह रहे चुनीभाई वैद्य का कहना था, ''गाँधी की तो आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत हैं. गुजरात में तो उनकी प्रासंगिकता का हिसाब ही नहीं.''

उनका कहना है कि गुजरात में जो हुआ वो तो किसी भी राष्ट्र को तोड़ सकता था. इस हालत में गाँधी की जो सीख थी कि हम सब भाई हैं, वही काम आई.

समन्वय

गाँधीवादी अमृत मोदी का मानना है कि दुनिया की तमाम अच्छाइयों का समन्वय गाँधी थे.

उनका कहना हैं, ''जहां-जहां भेद हैं और इस भेद को मिटाना इस समाज की आवश्यकता हैं. गाँधी ने एक विचार रखा. सबके दिलों को जोड़ना उनका उद्देश्य था.’


हर शख्स अपने दृष्टिकोण से गाँधी को देखता है

हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से गाँधी को देखता हैं. भानु शाह एक वरिष्ठ कलाकार हैं. उन्होंने गाँधी की अस्थियों का विसर्जन देखा था.

गाँधी आश्रम में बैठकर चित्र बनाते वक़्त उन्हें न केवल गाँधी बल्कि उस दौर के लोग याद आते हैं.

उनका कहना है, ''मैं उस ज़माने के किसी भी आदमी को मिलता हूँ तो हृदय में कुछ हो जाता है.''

भानु शाह जैसे बहुत से कलाकार अपनी कला से गाँधी को जोड़ते हैं.

गाँधी पर अध्ययन करने वाले रिज़वान क़ादरी नौजवान हैं.

उनका कहना है, ''गाँधी जी की हर वर्ग के लिए प्रासंगिकता रहेगी. गाँधी सत्य का पहले खुद पालन करते थे और उसी के बाद सबको उसका अनुसरण करने को कहते थे.''

काफ़ी लोग इस बात से परेशान हैं कि जहाँ एक ओर तो समाज का हर वर्ग गाँधी का आदर करता है, वहीं दूसरी और गाँधी की सीख और उनके बताई बातों में बहुत कम लोग दिलचस्पी लेते हैं.

लोग इस बात का उदाहरण देते हैं कि जब भी किसी भी देश में कोई भी आदमी समाज के लिए अच्छा काम करता हैं तो उसे 'वहां के गाँधी' का खिताब मिलता हैं.

शायद यही गाँधी की प्रासंगिकता को दर्शाता है.

'गांधी को सरकार के लोग ही मार डालते'

गांधीजी की प्रासंगिकता पर चिंतनपरक लेख लेखक और विचारक गिरिराज किशोर की कलम से बीबीसी से साभार.....गांधी पर बहसमुबाहिसा मं शामिल लोगों के लिए ख़ुराक
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मैंने बचपन में महात्मा गांधी को देखा था.
तब गांधीजी दिल्ली से हरिद्वार जा रहे थे. रास्ते में मेरा शहर मुज़फ़्फ़रनगर पड़ता है. हम सब बच्चे स्कूल से उन्हें देखने के लिए पहुँचे.

सुनकर आश्चर्य होगा कि गांधी से हमसे नहीं मिले. वे छिप गए. लेकिन जब लोगों ने घेर लिया तो बस से सिर निकालकर कहा, 'गांधी को भूल जाओ, अब तुम सब गांधी हो, जाओ देश को बनाओ.'

उनके स्वर में एक तरह की निराशा थी और यह निराशा धीरे-धीरे उपजी थी.

पहले गांधी जी कहा करते थे कि वे 125 बरस जीने वाले हैं. लेकिन विभाजन देखने के बाद, सरकार की बदलती हुई नीति देखने के बाद और जनता पर हो रहे दमन को देखने के बाद गांधी जी के मन में निराशा पैदा हो गई थी.

और तभी वह कहने लगे थे, "अब मेरे जीने का कोई लाभ नहीं. मैं चाहता हूँ कि जल्दी चला जाऊँ."

तो जो निराशा उनके मन में जीते-जी आ गई थी, अगर वह आज जीवित होते तो निराशा बढ़ती ही. गांधी तब एक निराश व्यक्ति थे और आज अगर वह होते तो भी सबसे दुखी प्राणी होते.

जिस तरह से समाज में अपराध बढ़ रहे हैं, बच्चों की हत्याएँ हो रही हैं, बलात्कार हो रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि गांधी आज होते तो वे इस समय की सरकारों के विरोध में भी सत्याग्रह कर रहे होते.

लगता है कि यदि आज गांधी होते तो सरकार के आदमी ही उन्हें मार डालते.

बदलाव

ऐसा नहीं है कि गांधी के दर्शन को हमने अब भुला दिया है. दरअसल इसकी शुरुआत तो गांधीजी के रहते-रहते ही हो चुकी थी.

आज़ादी मिलने के तुरंत बाद बीबीसी के एक संवाददाता से गांधी जी ने कहा था, "जाओ दुनिया से कह दो कि गांधी अब अंग्रेज़ी नहीं जानता."

जवाहर लाल नेहरू ने कहा तो था कि वे हिंदी को राजभाषा बनाएँगे, लेकिन वे मन ही मन अंग्रेज़ी को चाहते थे. जिस तरह से नेहरु ने पदवी देकर हिंदी को राजभाषा बनाया, उसने इसे साम्राज्यवाद का हिस्सा बना दिया.

दूसरा गांधीजी ने नेहरुजी से कहा था कि अब गाँवों की ओर देखिए, देश के आर्थिक आधार के लिए गाँवों को ही तैयार करना चाहिए.

उनका कहना था कि भारी कारखाने बनाने के साथ ही एक दूसरा स्तर बनाए रखना चाहिए जो गाँवों की अर्थव्यवस्था का था.

लकिन नेहरु जी ने उनसे कह दिया कि उनकी गाँवों में कोई ख़ास रुचि नहीं है. नेहरु जी की यह बात रिकॉर्ड में भी है.

अब जाकर मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि गाँवों की ओर ध्यान देना चाहिए.

हम जब छोटे थे तो पढ़ाई करते हुए श्रमदान करने जाते थे. सड़कें बनाने में और कुएँ खोदने में सहयोग दिया करते थे.

वह गांधी की शिक्षा का ही असर था कि जब तक बच्चे निर्माण कार्यों में योगदान नहीं करेंगे, वे अपने देश से नहीं जुड़ सकेंगे.

लेकिन धीरे-धीरे वह भी पाठ्यक्रम से हट गया. अब बच्चे रोज़गारोन्मुख शिक्षा देने लगे हैं.

गांधी जी दक्षिण अफ़्रीका में बैठे हुए भी भारत के बारे में सोच रहे थे.

'इंडियन ओपिनियन' की संपादकीय पढ़ें तो पता चलता है कि दक्षिण अफ़्रीका में हर क़दम उठाते हुए गांधी जी सोच रहे थे कि वे हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए वह क्या-क्या करेंगे.

लेकिन हम भारत में रहकर यहाँ के लिए कुछ सोच नहीं पा रहे हैं. सच कहें तो अब भारत की सोच में गांधी अंश भर भी नहीं बचे हैं.

(विनोद वर्मा से हुई बातचीत के आधार पर)

बीबीसी से साभार प्रकाशित

आज गांधी और जिन्ना क्या सोचते होंगे?

परदे के पीछे.सुना है कि यूटीवी ने ‘तुलसी’ स्मृति इरानी को महात्मा गांधी के जीवन पर आधारित लंबा सीरियल बनाने का प्रस्ताव दिया है। अब तक महात्मा के जीवन पर बनी फिल्मों में श्रेष्ठतम फिल्म सर रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ और गांधीजी की प्रेरणा से बनी कथा फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ हैं।

अनुपम खेर की ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ भी श्रेष्ठ प्रयास है। श्याम बेनेगल की ‘मेकिंग ऑफ महात्मा’ भी महान प्रयास है। इस विषय पर घटिया फिल्में थीं हॉलीवुड की ‘नाइन अवर्स टू रामा’ और अनिल कपूर की ‘गांधी माय फादर।’ स्मृति इरानी एक राजनीतिक दल की सक्रिय सांसद हैं तो क्या वे अपने दल के दृष्टिकोण से गांधी को प्रस्तुत करेंगी? यह उनका अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला है।

भारत में तो गांधी को प्रस्तुत करने के प्रयास हुए हैं परंतु पाकिस्तान में जिन्ना पर शायद कोई फिल्म नहीं बनी है। भारत में भुट्टो के फांसी दिए जाने पर आईएस जौहर ने नाटक प्रस्तुत किया था परंतु पाकिस्तान में कोई प्रयास नहीं हुए। एक सेक्युलर मुल्क में हर तरह की फिल्म बन सकती है।

दरअसल आठ अगस्त 1947 को दिल्ली में मोहम्मद अली जिन्ना ने बयान दिया था कि पाकिस्तान एक सेक्युलर देश होगा परंतु 14 अगस्त तक कुछ और शक्तियां उन पर हावी हुईं और पाक को इस्लामिक देश घोषित किया गया।

उन दिनों बीमारी के कारण जिन्ना भीतर से टूट गए थे या यह भी मुमकिन है कि बंटवारे की त्रासदी से उन्हें अपने संघर्ष की सारहीनता का अहसास हो गया था। जैसे 1964 में नेहरू की मृत्यु का मेडिकल प्रमाण पत्र हृदयाघात बताते हैं परंतु चीन द्वारा दिए गए विश्वासघात ने उन्हें पहले ही मार दिया था।

शायद ठीक ऐसा ही मोहम्मद अली जिन्ना के साथ हुआ कि पाकिस्तान का निर्माण उन्हें अपना स्वप्नभंग लगा हो। उन्हें अहसास हुआ हो कि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के पागल घोड़े ने उन्हें किस खाई में फेंक दिया। बहरहाल मृत्यु के परे किसी संसार में महात्मा गांधी और मोहम्मद अली जिन्ना मिले जरूर होंगे और दोनों ने अपने आदर्श के खंडित होने पर दुख भी मनाया होगा।

आज दोनों ही अपनी रचनाओं (देशों) में सांस्कृतिक मूल्यों के पतन पर बेहद दुखी होंगे। अगर वे पुन: अपने देशों में प्रगट हो सकें तो यकीनन फिर मार दिए जाएंगे। शहादत कोई आदत तो नहीं होती, कोई लत या बचपन का कुटैव भी नहीं होती परंतु मारना या हत्या करना जरूर आदत बन जाती है।

मोहम्मद अली की महत्वाकांक्षा मर चुकी है परंतु गांधीवाद आज भी छोटे-छोटे टापुओं की तरह जन समुद्र में मौजूद है। गांधीवाद कभी आऊट डेटेड नहीं हो सकता, क्योंकि वह मनुष्य की अपार करुणा का श्रद्धा गीत है। मोहम्मद अली नाइटमेयर (दु:स्वप्न) थे। गांधी का ख्वाब मानवता की अलसभोर का सपना है जो सच हो सकता है।

गौरतलब है कि महात्मा गांधी आज के गुजरात के बारे में क्या सोचते होंगे? क्या वे मोदी शासित प्रदेश में पुन: जन्म लेना चाहेंगे? यह भी संभव है कि गांधी अमेरिका या चीन में नया जन्म लेना चाहें? वे कहीं भी जन्में काम पूरी मानवता का ही करेंगे।

गांधीजी औऱ जिन्ना के बारे में सारी बातें हिन्दुस्तान से बंटावारे के बाद पाकिस्तान बनने कसंदर्भों में ही की जाती हैं.....जिसके लिए बड़ी तादाद में मुस्लिम जिन्ना को आज़म की श्रेणा में रखते हैं..तो वहीं भारत का एक बड़ा तबका बंटवारे के लिए गांधीजी को दोषी मानता है..सच जो भई हो,,,,,,,लेकिन जयप्रकाश चौकसे का ये लेख चिन्तन की चादर का विस्तार है...इसलिए साभार यहां प्रकाशित है........
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लेख- जयप्रकाश चौकसे Thursday, October 02, 2008 13:36 [IST]
दैनिक भास्कर से साभार प्रकाशित

भारतीयता कोई बिहार से सीखे

देश दिवाली कि ख़ुशिया मना रहा था, तो वहीं दो प्रदेशों की अस्मिता सच औऱ झूठ को उजागर करनवाने पर अढ़ी थी...
सच कुछ भी हो लेकिन एक सवाल का उत्तर तो यही है कि किसी अपराध की सज़ा क्या अलग लोगं के लिए अलग होगी ?
इस सवाल का उत्तर जल्द ही महाराष्ट्र सरकार के ग़हमंत्री आर.आर पाटिल को देना होगा..कि वो औऱ उनकी पुलिस उस वक्त क्या कर रही थी जब उत्तरभारतीयों को सरेआम दौड़ा दौड़ाकर चौराहों पर मारा जा रहा था...जब मासूम टैक्सीवालों और रेहड़ी खोमचे वालों की रोजी को बुरी तरह उजाड़ा औऱ तोड़ा फोड़ा जा रहा था..ये किसी पक्ष में खड़े होकर सवाल पूछना नहीं है....ये एक अहम प्रश्न है...जिसका जवाब राज्य सरकार को देना होगा....किसी भी प्रदेश में इस रह की अलगाववाद की आवाज़ ज़हर है..इससे जितनी जल्द मुख्ती मिले उतना ही बेहतर....लेकिन जब बिहार के लोग दूसरे प्रदेशों में तमाम वादों और आरोंपों का शइकार होते हैं..तो ये बताना जरूरी हो जाता है कि ये मेहनतकश लोग जिस प्रदेश से आते हैं...उसने न सिर्फ देश के अन्दर बल्कि दुनिया को कई पाठ पढ़ाये हैं...महाराष्ट्र की जमीन भी राष्ट्रीय एकता और विकास की परंपरा की जमीन रही है....इस गर्व को उजागर करता वरिष्ठ सुधांशू रंजन का ये लेख प्रस्तुत है.....
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महाराष्ट्र की घटनाओं से बिहार के लोगों को गहरी तकलीफ पहुँची है। कुछ अरसा पहले बिहार विधानसभा के साझा सम्मलेन में कुछ विधायकों ने "मराठी राज्यपाल वापस जाओ" के नारे लगाए। बिहार के लोगों की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन यह कार्रवाई बिहार की परम्परा और संस्कृति के अनुरूप नही थी। बिहार की अपनी खामियां हैं, लेकिन भारतीयता के पैमाने पर उसने जो मिसाल कायम की है, वह काबिले तारीफ है। इस पर चल कर ही यह देश खुश रह सकता है।
बिहार को कई बातों के लिए नीची नजर से देखा जाता है। उसकी गरीबी और पिछडापन का मजाक उदय जाता है। उसके जातिवाद को बुराई की मिशाल बताया जाता है। लेकिन सच यह भी है की प्रांतवाद या क्षेत्रवाद के कीटाणु इस राज्य में कभी घुस नही पाये।
बिहारी अस्मिता हमेशा राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी रही। हजार वर्षों तक पाटलिपुत्र इस भूभाग का राजधानी रहा और पाटलिपुत्र का इतिहास ही देश का इतिहास बन गया। राजा जनक, दानी कर्ण,भगवान् महावीर, भगवान् बुद्ध, राजनायिक चाणक्य, सम्राट चन्द्रगुप्त मोर्य, अजातशत्रु, अशोक महान, सेनापति पुष्यमित्र शुंग, दार्शनिक अश्वघोष, रसायन शास्त्र के जनक नागार्जुन, चिकित्सक जीवक और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट जैसे महापुरुष इस धरती पर हुए जिनसे भारत को अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली।
इस परम्परा पर कौन गर्व नही करता? क्या इसे बिहारी परम्परा कहा जायेगा? भारतीय राष्ट्रवाद की परम्परा बिहार में आधुनिक समय में भी जारी रही।
आजादी के बाद कोयले और लोहे पर मालभाडा समानीकरण की नीति को बिहार ने बिना किसी ऐतराज के स्वीकार कर लिया। इस कदम से बिहार की इकोनोमी की कमर टूट गयी। समान खर्च पर लोहे और कोयले की दुसरे राज्यों तक धुलाई की सुविधा का असर यह हुआ कि उद्योगों को बिहार आने की जरुरत ही नही पड़ी। वे दुसरे राज्यों में लगते गए। बिहार के संसाधन ख़ुद उसके काम नही आए। गौरतलब है कि कॉटन के लिए यह नीति लागू नही की गयी।
एक और उदाहरण लीजिये। दिसम्बर १९४७ में बिहार विधानसभा में इस मुद्दे पर बहस चल रही थी कि दामोदर घटी परियोजना में बिहार को शामिल होना चाहिए या नही। एक-एक कर कई सदस्यों ने कहा कि इस परियोजना से बाढ़ बचाव और बिजली उत्पादन का फायदा पुरा का पुरा बंगाल को मिलेगा, जबकि डूब और विस्थापन का खतरा बिहार को उठाना पड़ेगा। इस तर्क का जवाब सरकारी पक्ष के पास नही था।
सिंचाई मंत्री को जवाब देना था, लेकिन उनकी जगह मुख्यामंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा खड़े हुए। उन्होंने कहा, अभी १५ अगस्त को देश आजाद हुआ है, हम सबने अखंड भारत के प्रति वफादारी की क़समें खाई है, लेकिन उसे हम इतनी जल्द भूल गए। अगर इस परियोजना से बंगाल के लोगों को फायदा पहुँच रहा है, तो क्या ग़लत है? वे भी उतने ही भारतीय हैं, जितने कि बिहार के लोग।
बिहार ने अगर ख़ुद को भारतीय अस्मिता के साथ एक ना कर दिया होता, तो क्या वहां से इतनी बड़ी तादाद में गैर-बिहारी-सांसद बनते? आजादी की लड़ाई के दौरान १९२२ में परिषद् के चुनाव लड़ने के मुद्दे पर कोंग्रेस बंट गयी थी। गया अधिवेशन में भाग लेने आए जयकर और नटराजन जैसे नेता जब अपने राज्यों से कांग्रेस कमिटी के प्रतिनिधि नही चुने जा सके, तो बाबु राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें बिहार से निर्वाचित कराया। यह सिलसिला चलता रहा।
संविधान सभा में सरोजिनी नायडू बिहार से चुनी गयी। आजादी के बाद जे. बी. कृपलानी, मीनू मसानी, मधु लिमये, जोर्ज फर्नांडिस, रविन्द्र वर्मा, मोहन सिंह ओबेरॉय आदि को बिहार ने अपना नुमाइंदा चुना। इंद्रकुमार गुजराल भी यहीं से राज्यसभा में पहुंचे। क्या बिहार में प्रांतवाद इसलिए नही है कि उसका सारा ध्यान जातिवाद में लगा रहता है।
कुछ लोग ऐसा तर्क दे सकते हैं, लेकिन ऐसा कहना बिहार के साथ अन्याय होगा। अखिल भारतीय सेवाओं के जो अफसर बिहार में तैनात है, वे मानते हैं कि उनके साथ कोई भेदभाव नही किया जाता। एक मायने में बाहरी होना उनके पक्ष में जाता है, क्यौंकी वे जातिगत समीकरणों से अलग रह पाते हैं।
ख़ुद महाराष्ट्र की परम्परा भी ओछे प्रांतवाद के ख़िलाफ़ है। यह राज्य समाज सुधारकों, संतों और समाजवादियों का गढ़ रहा है। बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेताओं ने राष्ट्रवाद का पाठ पढाया। तिलक ने पुरे देश से धन इकठ्ठा कर डेक्कन एजुकेशन सोसायटी की १८८४ में स्थापना की। तब से आज तक सोसायटी के पैम्पलेट के कवर पर यह साफ़ लिखा होता है कि जाति, धर्म, भाषा या प्रान्त के नाम पर कोई भेदभाव नही किया जायेगा। सोसायटी की स्थापना में उन्हें गोखले और गोपाल गणेश आगरकर का सक्रिय समर्थन मिला। महर्षी कर्वे जैसे शिक्षाविद भी इससे जुड़े। पुणे का मशहूर फर्गुशन कॉलेज उसी सोसायटी की देन है।
गोखले ने ही गाँधी से कहा था कि देश में कुछ करना चाहते हो तो देश को समझो और देश में घुमो। बहरहाल, ये मिशालें पेश करने का मकसद यह है कि हम क्षेत्रवाद राष्ट्रवाद को समझें। याद कीजिये कि ब्रिटेन की प्राइम मिनिस्टर मार्गरेट थैचर और रूस के प्रेजिडेंट मिखाइल गोर्वाचोव ने भारत से सबक लेने को कहा था, जहाँ इतनी विभीन्नता के बीच लोग साथ-साथ रहते आयें हैं।
अब अगर हम इस बात को भूलकर राज्यों के बीच फर्क देखने लगें, तो भारत का क्या होगा? हमें भारतीय राष्ट्रवाद से अपने टूटते तारों को फ़िर जोड़ना होगा।
इस देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सदियों से रहा है, भले ही राजनायिक राष्ट्रवाद हाल की बात हो। हमारे यहाँ सात नदियों को पूजने की परम्परा रही है। ये नदियाँ सारे देश में फ़ैली थी। शंकराचार्य ने देश के चारों कोने में पीठों की स्थापना की थी।
आधुनिक समय में राजनितिक राष्ट्रवाद की अवधारणा पैदा हुई, जिसके तहत हमने आजादी की लड़ाई लडी। हमारी खुशकिस्मती है कि सांस्कृतिक और राजनीतिक भारत का नक्शा लगभग एक जैसा है। भाषाई आधार पर प्रान्तों का गठन काफी बाद की घटना है, लेकिन हमने इसे इतना तूल दे दिया है कि यह हमारे ट्रेंड से बाहर निकलने के लिए हमें क्या करना चाहिए, इस पर सभी को विचार करना होगा।


लेखक वरिष्ट पत्रकार हैं और ये लेख नव भारत टाईम्स के सम्पादकीय का है, इस लेख से कुछ ऐसे पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है जिससे संभवत: बहुत सारे स्थानीय लोग भी अनजान हैं। राष्ट्रवाद को समर्पित यह लेख उन तमाम लोगों के लिए जिन्होंने इसे दैनिक में नही पढा.

साभार: नव भारत टाइम्स
लेखक : सुधांशु रंजन (वरिष्ट पत्रकार)

Thursday, October 2, 2008

गांधी जी आज होते तो कया होता?

गांधी जयन्ती के बहाने देश के करोड़ों नौकरीशुदा लोगों को एक दिन की छुट्टी मिल जाती है....लेकिन बापू की १३९ वें दन्मदिन पर हमारे मित्रों के बीच गांधी जी की प्रासंगिकता आज के बक्त में ...इसे लेकर बहसमुबाहिसा शुरू हो गया ...सवाल बड़ा अहम है..क्योंकि ये केवल हम ही नहीं पूछ रहे बल्कि २ अक्टूबर को अपने दर्शकों की भवना की पड़ताल करने में लगे टीवी चैनल्स ने अपने अपने स्तर पर सवाल पूछए...किकके पास कितने एसएमएस आये ...किसके पास कितने ईमेल आए...इन सबका तथाकथित आंकड़ा निकालने के बाद तमाम आरोपों को ढ़ो रहे चीवीन्यूज चैनल्स ने इन आंकड़ो के बूते क्यानिष्कर्ष निकाले .....ये एक अलग मुद्दा है....लेकिन यूं ही सही अगर मुद्दा उठा है..तो इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता ....क्योंकि जब एक बन्दे के दम की जांच पड़ताल करती फिल्म को देखने के बाद ...सैकड़ों लोग नवोदित गांधीगिरी पर उतर सकते हैं..तो क्या आज के वक्त में ख़ुद उस बन्दे की मौजूदगी कुछ औऱ भई नहीं कर सकती है......क्या आप सोचते हैं कि दुनिया को नई दिशआ देने वाले इस नेता के आज के वक्त में कोई प्रासंगिकता है...तो लिखिये